गते-गते नईया चलाव हो खवैया की रुके नहीं तोर पतवार .................



रिपोर्ट - अनमोल कुमार

दोपहर होने को थी जिस स्टोरी की तलाश में हम थे उसके करीब पहुच चुके थे घाट पर सामान्य सी हल चल थी बालू लादे नावों से मजदूर बालू उतारने में मशगुल थे .घटवार अपनी नाव पर सवारी बैठाने में व्यस्त था ,जेठ की गर्मी फागुन में ही महसूस हो रही थी हम अपनी स्टोरी के नायक की तलाश में थे . हमारा नायक घाट के बगल में पीपल के तले गमछा में सतुआ सानने में व्यस्त था हमें देख कर अनदेखा करते हुए वह पसीने से लथपथ अपने दोपहर के भोजन की तैयारी में मगन था हम पहुचे थे बालूघाट पर बालू मजदूरों पर लाइव स्टोरी करने बड़ा ही यादगार अनुभव रहा .जब वह सतुआ खाने के बाद सुस्ताने के मूड में हुआ तो हमारी बातचीत प्रारंभ हुई बालू मजदूरों के वर्तमान हालात पर .हमारा नायक गणेशी सहनी कुतुबपुर दियरा का रहने वाला था .पुस्त दर पुस्त बालू मजदुर के रूप में उसकी और उसके परिजनों की आजीविका चलती आ रही थी .जीवन का पचास वसंत देख चुके गणेशी ने कहा की जब से जेसीबी मशीन का इस्तेमाल नाव से बालू उतारने से लेकर ट्रक पर लोड करने तक होने लगा तब से बालू मजदूरों के समक्ष भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गयी है .ऊपर से हाकिम लोगो ने अधिकांश घाटो पर बालू के उठाव पर रोक लगा कर जुलुम कर दिया है ,उस पार दियारा के दर्ज़नो गावो में बालू मजदूरों की पीढ़ी दर पीढ़ी तैयार होती आई है .गणेशी काफी कुरेदने पर भाऊक हो उठा हमारी उसकी बातचीत भोजपुरी में जारी रही .500 की दिहारी पर एक नाव का बालू घाट पर पहुचने का काम यहाँ के सैकड़ो परिवारों के लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ करता है .वक़्त ने करवट ली और बालू मजदूरों की एक मेहनतकश सरंचना भुखमरी के कगार पर पहुच गयी.गणेशी के शब्दों में इ जमाना हमनी जईसन गरीब गुरबा आदमी ला नइखे पाहिले माने पंद्रह बरिस पाहिले दू स मजूरी रहे तब रोज़ काम मिल जात रहे खा पीके कुछ बांच जात रहे अब त सब भगवान भरोसे बा .

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